सोच
ज़िन्दगी को बनाने में और बिगाड़ने में सोच का अहम रोल होता है। दूसरे शब्दों कहें तो सोच हमारी ज़िन्दगी को बहुत प्रभावित करती है। यह अच्छे रूप में भी हो सकती है और बुरे रूप में भी हो सकती है।
सोच कहने में मात्र एक शब्द है लेकिन इसका असर इतना गहरा होता कि वह न केवल इंसान को बल्कि पूरे समाज को भी बदल सकती है। सोच या विचारों के कारण ही कोई इंसान महान या शैतान (बुरा) बनता है। वो सोच विचार ही है जिनके कारण अच्छे या बुरे समाज का निर्माण होता है।
सोच सिर्फ सोच तक ही सिमित नहीं रहती बल्कि कईं लोग सोच से प्रभावित होकर उसे अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बना लेते हैं या अपनी ज़िन्दगी में नियम या परम्परा के रूप में अपना लेते हैं। इसके बहुत सारे उदाहरण हम अपनी ज़िन्दगी में देखते हैं और बहुत सारे उदाहरण इतिहास में भी दर्ज हैं। जिनमे से एक थी सती प्रथा।
सती प्रथा हमारा विषय नहीं है बल्कि ऐसी सोच को उजागर करना है जिसके कारण न जाने कितनी महिलाओं को मजबूर होकर अपनी जान देनी पड़ी थी।इस प्रथा को इन्साफ के तराजू में तोलकर उसका मूयांकन करने का प्रयास किया गया है।
इतिहासकारों के अनुसार गुप्तकाल में यानी 510 ई० के आसपास सती प्रथा होने के प्रमाण मिलते हैं। इस प्रथा में पति की मृत्यु हो जाने के बाद उसकी पत्नी को भी जिन्दा चिता पर बैठा कर जला दिया जाता था। बहुत कम महिलाएं ऐसी होती थीं जो अपनी इच्छा से पति के साथ उसकी चिता में जलना चाहती थी और उनमे से भी अधिकतर वो महिलाएं होती थीं जो एक विधवा का दुखभरा जीवन नहीं जीना चाहती थीं। क्योंकि उस समय के समाज में एक विधवा का दूसरा विवाह नहीं किया जाता था। जिसके कारण उनका जीवन बहुत ही दुखों व परेशानियों से भरा होता था। लेकिन इसके बावजूद अधिकतर ऐसी महिलाओं को सती होने पर मजबूर किया जाता था, जो अपनी इच्छा से सती नहीं होना चाहती थी।
यूँ तो सती प्रथा की शुरुआत या चलन में आने की बहुत-सी घटनाएं हैं। जिनमे से एक घटना यह कि गुप्तकाल में महाराजा भानुप्रताप की एक युद्ध में मृत्यु हो जाने के बाद उनकी पत्नी ने अपनी इच्छा से अपने प्राण त्याग दिए और उस वक़्त के लोगों ने उसे धर्म, आदर, पति के प्रति प्रेम और निष्ठा भाव समझा और ऐसी ही कई अन्य घटनाओं को आधार बनाकर सती प्रथा का चलन शुरू हो गया था।
कई लोगों ने सती प्रथा को इसलिए भी बढ़ावा दिया क्योंकि इसमें उन लोगों का कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता था। जिनमे से सबसे बड़ा स्वार्थ पीड़िता की संपत्ति का हड़प जाना था।
सती प्रथा का एक कारण और भी बताया जाता है कि बाहरी आक्रमणों के कारण कुछ महिलाएं अपनी इज़्ज़त बचाने की खातिर आत्महत्या कर लेती थी या सती हो जाती थी।
इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए आवाज़े भी उठती थीं। लेकिन उसको दबा दिया जाता था। इस कुप्रथा को समाप्त करने की लिए बहुत से लोगों ने अपना योगदान दिया। जिनमे से राजा राम मोहन राय का खास योगदान रहा।
राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा को ख़त्म करने के लिए कई प्रयास किए।उन्होंने विधवा विवाह को सही ठहराया। इस कुप्रथा को ख़त्म करने तथा उसके समाधान के लिए हिंदी, बांग्ला व अन्य भाषाओँ में पुस्तकें लिख कर मुफ्त में बंटवाई। सती प्रथा मानने वालों पर कड़ी कार्यवाही करवाई गई। जिसके फलस्वरूप 04 दिसंबर 1829 को इस प्रथा को तत्कालीन सरकार ने कानूनी रूप से पूर्णतः समाप्त कर दिया था।
उपर्युक्त से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि एक छोटी सोच ने प्रथा का रूप लेकर पूरे समाज पर अपना कितना बुरा प्रभाव डाला था। एक गलत काम पर अच्छाई लेबल लगाकर उसे न केवल अपने समाज पर लागू किया गया बल्कि उसे सही ठहराने की लिए तर्क भी दिए गए।
जिन महिलाओं ने अपनी इच्छा से पति के साथ मरना तय किया क्या उनके लिए सिर्फ पति का रिश्ता महत्वपूर्ण था ? क्या अन्य रिश्ते उनके लिए कोई मायने नहीं रखते थे। अपनी इच्छा से सती होने वाली महिलाओं के यदि बच्चे रहे होंगे तो क्या उनके दिल में बच्चों के लिए प्यार या ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं रहा होगा ?
अपनी इच्छा से सती होने वाली महिलाओं के कारण न जाने कितनी महिलाओं को उनकी मर्ज़ी के खिलाफ आग के हवाले कर दिया गया। न जाने कितने मासूम बच्चों का सहारा छीन लिया गया। ऐसी महिलाओं ने न केवल अपने जीवन का बुरा अंत किया बल्कि एक ऐसी खतरनाक प्रथा को ज़िंदा किया जिसने कितनी ही महिलाओं का जीवन उनसे जबरन छीन लिया।
यह मानने में कोई दो राय नहीं है कि सती प्रथा समाज के लिए बहुत बड़ा कलंक था। इस प्रथा ने महिलाओं के खिलाफ अन्याय को बढ़ावा दिया। इस प्रथा के कारण न जाने कितने परिवार उजड़ गए। जिन बच्चों के पिता गुज़र जाते थे क्या उनके लिए पिता मृत्यु दुःख काफी नहीं था। जो उनकी माता को भी मरने के लिए मजबूर कर दिया जाता था।
बाहरी आक्रमणों के कारण आत्महत्या करना या सती होना, यह एक बहुत ही गलत सोच थी। जब उन महिलाओं ने मरना तय कर ही लिया था तो वे आक्रमणकारियों से लड़ते हुए शहीद हो जाती तो उन्हें एक ज़िंदा मिसाल के रूप में याद किया जाता। सती होने का मतलब था, आत्महत्या और आत्महत्या करने का जो भी कारण रहा हो उसे कभी भी न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता।
उस समय के कुछ लोग ऐसे भी होंगे जो महिलाओं को कमज़ोर समझते होंगे और उनके लिए सती होने को सही मानते होंगे। यदि ऐसा था तो वे सब गलती पर थे, क्योंकि महिलाएं कभी भी कमज़ोर नहीं रहीं है। महिलाओं के बहादुरी के किस्से पहले से चले आ रहे हैं।
जब एक वर्ग किसी गलत काम को सही ठहराता है और उसके लिए कुतर्क भी देने लगता है। जिसकी कोई हक़ीक़ी ज़मीन (सच्चाई) नहीं होती तो समझ लेना चाहिए कि वह वर्ग या समाज एक विनाश की ओर बढ़ रहा है। वह न केवल अपनी ज़िंदगी बर्बाद करता हैं बल्कि अपनी आने वाले पीढ़ियों को भी बर्बादी की ओर ले जाता है और दूसरों पर भी इसका बुरा असर पड़ता है।
ज़िंदा जलाए जाने का एहसास कितना दुखद व भयावह होता होगा। अगर हमारे हाथ की सिर्फ एक ऊँगली को जलाया जाए तो हमारा बुरा हाल हो जाएगा। उनका तो पूरा शरीर आग में झोंक दिया था। यह सोच कर ही शरीर में एक सिहरन पैदा जाती है। उनके बच्चों पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट जाता होगा और उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता होगा। यह प्रथा कितनी असहनीय व दर्दनाक थी।
वर्तमान समय में भी इस तरह की अन्य परम्पराएं आज भी मौजूद हैं। जिसका सीधा असर खासकर महिलाओं के जीवन पर पड़ता है। ऐसी रस्मे या परम्पराएं जो किसी व्यक्ति (स्त्री/पुरुष) के अपमान दुःख का कारण बने उसे छोड़ देना ही बेहतर है। हमें अपनी सोच को सकारात्मक बनाने की ज़रुरत है।
सोच का सफर आगे जारी रहेगा..................................

